Thursday, 11 April 2013

श्री राधारानी की कृपा 


एक बार बरसाना और आसपास के गाँव में ऐसा अकाल पड़ा की लोगों में खाने के लिए त्राहि त्राहि मच गयी जितने भी साधू महात्मा थे उनको मधुकरी(वह जो साधू ब्रज में हर घर से मांग कर प्रसाद पाते है, वह मधुकरी होती है) कौन दे?? एक बाबा जगन्नाथ भी यह जानकर किसी के घर मधुकरी लेने जाने में संकुचित हो गए.विवश होकर कुटिया में साधू वैष्णवों के लिए जुटाई हुई सामग्री काम में लेने लगे.अंत में ऐसी परिस्थिति आ गयी की बरसाना छोड़कर कही अंत जाने के लिए अपना लोटा कम्बल उठाया और चलाने लगे, बाबा के नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाहित हो रहे थे.

बरसाने वाली श्री राधा ये सब देख रही थी.कुटिया से बाहर आते ही एक ब्रजबाला ने कहा- "बाबा"! कहाँ जा रहा है?बाबा ने कहा-"कहीं तो जाकर मरूँगा, जब यहाँ मधुकरी का भी घाटा काल पड़ गया है, निपूता पेट तो नहीं मानता.

ब्रजबाला ने कहा-"बाबा" हमारे घर क्यों नहीं जाते, तेरे लिए आले में हर रोज मधुकरी मेरी मैया रखती है.बाबा ने लोटा और सोटा फिर अपनी कुटिया में रखा.उसके घर पहुंचा.

गृहमालिक ब्रजवासी ने कहा- बाबा इस समय तो मधुकरी नहीं है. जब बाबा ने उसकी लाली का नाम लेकर बताया की आले में रखी है.ब्रजवासी आश्चर्य में पड़ गया की हमारी लाली तो अनेक दिनों से अपने ससुराल में है.फिर आले में जाकर उसने देखा तो अनेक रोटियां रखी थी.स्त्री पुरुष दोनों विस्मित रह गए की हमने तो कभी ये रोटियां रखी नहीं कहाँ से आई?

ब्रजवासी बोला-"बाबा" रोज मधुकरी ले जाया करो.बाबा को श्री किशोरी जी ने बरसाने से नहीं जाने दिया.ऐसी है हमारी लाडली श्री किशोरी जी.कभी किसी का दुःख नहीं देख सकती.


kanhaya, gopal, kaanha, mohan, maadhav, keshav
raadhe.....

raadha dhund rahi, kisine mera shaam dekha
shaam dekha, ghanshyaam dekha
raadha dhund rahi, kisine mera shaam dekha

raadha tera shaam hamne mathura mein dekha
bansi bajaate huye, ho raadha tera shaam dekha
raadha dhund rahi, kisine mera shaam dekha

raadha tera shaam hamne gokul mein dekha
are gaiyan charaate huye, ho raadha tera shaam dekha
raadha dhund rahi, kisine mera shaam dekha

raadha tera shaam hamne vrindavan mein dekha
raas rachaate huye, ho raadha tera shaam dekha
raadha dhund rahi, kisine mera shaam dekha

raadha tera shaam hamne gatipura mein dekha
ari parbat uthaate huye, ho raadha tera shaam dekha
raadha dhund rahi, kisine mera shaam dekha


सनातन गोस्वामी का नियम था गिरि गोवर्द्धन की नित्य परिक्रमा करना. अब उनकी अवस्था 90 वर्ष की हो गयी थी. नियम पालन मुश्किल हो गया था. फिर भी वे किसी प्रकार निबाहे जा रहे थे. एक बार वे परिक्रमा करते हुए लड़खड़ाकर गिर पड़े. एक गोप-बालक ने उन्हें पकड़ कर उठाया और कहा-

"बाबा, तो पै सात कोस की गोवर्द्धन परिक्रमा अब नाँय हय सके. परिक्रमा को नियम छोड़ दे."


बालक के स्पर्श से उन्हें कम्प हो आया. उसका मधुर कण्ठस्वर बहुत देर तक उनके कान मे गूंजता रहा. पर उन्होंने उसकी बात पर ध्यान न दियां परिक्रमा जारी रखी. एकबार फिर वे परिक्रमा मार्ग पर गिर पड़े. दैवयोग से वही बालक फिर सामने आया. उन्हें उठाते हुए बोला-

"बाबा, तू बूढ़ो हय गयौ है. तऊ माने नाँय परिक्रमा किये बिना. ठाकुर प्रेम ते रीझें, परिश्रम ते नाँय."

फिर भी बाबा परिक्रमा करते रहे. पर वे एक संकट में पड़ गये. बालक की मधुर मूर्ति उनके हृदय में गड़ कर रह गयी थी. उसकी स्नेहमयी चितवन उनसे भुलायी नहीं जा रही थी. वे ध्यान में बैठते तो भी उसी की छबि उनकी आँखों के सामने नाचने लगती थी. खाते-पीते, सोंते-जागते हर समय उसी की याद आती रहती थी. एक दिन जब वे उसकी याद में खोये हुए थे, उनके मन में सहसा एक स्पंदन हुआ, एक नयी स्फूर्ति हुई. वे सोचने लगे-एक साधारण व्रजवासी बालक से मेरा इतना लगाव! उसमें इतनी शक्ति कि मुझ वयोवृद्ध वैरागी के मन को भी इतना वश में कर ले कि मैं अपने इष्ट तक का ध्यान न कर सकूँ.नहीं, वह कोई साधारण बालक नहीं हो सकता, जिसका इतना आकर्षण है. तो क्या वे मेरे प्रभु मदनगोपाल ही हैं, जो यह लीला कर रहे हैं?


एकबार फिर यदि वह बालक मिल जाय तो मैं सारा रहस्य जाने वगैर न छोड़ूँ. संयोगवश एक दिन परिक्रमा करते समय वह मिल गया. फिर परिक्रमा का नियम छोड़ देने का वही आग्रह करना शुरू किया. सनातन गोस्वामी ने उसके चरण पकड़कर अपना सिर उन पर रख दिया और लगे आर्त भरे स्वर में कहने लगे-

"प्रभु, अब छल न करो. स्वरूप में प्रकट होकर बताओ मैं क्या करूँ. गिरिराज मेरे प्राण हैं. गिरिराज परिक्रमा मेरे प्राणों की संजीवनी है. प्राण रहते इसे कैसे छोड़ दूं?"

भक्त-वत्सल प्रभु सनातन गोस्वामी की निष्ठा देखकर प्रसन्न हुए. पर परिक्रमा में उनका कष्ट देखकर वे दु:खी हुए बिना भी नहीं रह सकते थे. उन्हें भक्त का कष्ट दूर करना था, उसके नियम की रक्षा भी करनी थी और इसका उपाय करने में देर भी क्या करनी थी? सनातन गोस्वामी ने जैसे ही अपनी बात कह चरणों से सिर उठाकर उनकी ओर देखा उत्तर के लिए, उस बालक की जगह मदनगोपाल खड़े थे. वे अपना दाहिना चरण एक गिरिराज शिला पर रखे थे. उनके मुखारविन्द पर मधुर स्मित थी, नेत्रों में करुणा झलक रही थीं वे कह रहे थे-

"सनातन, तुम्हारा कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता. तुम गिरिराज परिक्रमा का अपना नियम नहीं छोड़ना चाहते तो इस गिरिराज शिला की परिक्रमा कर लिया करो. इस पर मेरा चरण-चिन्ह अंकित है. इसकी परिक्रमा करने से तुम्हारी गिरिराज परिक्रमा हो जाया करेगी."
इतना कह मदनगोपाल अन्तर्धान हो गये. सनातन गोस्वामी मदनगोपाल-चरणान्कित उस शिला को भक्तिपूर्वक सिर पर रखकर अपनी कुटिया में गये. उसका अभिषेक किया और नित्य उसकी परिक्रमा करने लगे. आज भी मदगोपाल के चरणचिन्हयुक्त वह शिला वृन्दावन में श्रीराधादामोदर के मन्दिर में विद्यमान हैं,
ऐसी मान्यता है कि राधा दामोदर मंदिर की चार परिक्रमा लगाने पर गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा का फल मिल जाता है.आज भी कार्तिक सेवा में श्रद्धालु बड़े भाव से मंदिर की परिक्रमा करते है.


बोलो बरसानेवाली की जय जय जय
श्याम प्यारे की जय
बंसीवारे की जय
बोलो पीत पटवारे की जय जय
मेरे प्यारे की जय
मेरी प्यारी की जय
गलबाँहें डाले छवि न्यारी की जय
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
नटवारी की जय
बनवारी की जय
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
बोलो बरसानेवाली की जय जय जय
राधे से रस ऊपजे, रस से रसना गाय ।
अरे कृष्णप्रियाजू लाड़ली, तुम मोपे रहियो सहाय ॥
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
वृष्भानु दुलारी की जय जय जय
बोलो कीरथि प्यारी की जय जय जय ??
बोलो बरसानेवाली की जय जय जय
मेरे प्यारे की जय
मेरी प्यारी की जय
नटवारी की जय
बनवारी की जय
गलबाँहें डाले छवि न्यारी की जय
वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय ।
जहाँ डाल डाल और पात पे श्री राधे राधे होय ॥
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
बोलो बरसानेवाली की जय जय जय
एक चंचल एक भोली भाली की जय
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
वृन्दावन बानिक बन्यो जहाँ भ्रमर करत गुंजार
अरी दुल्हिन प्यारी राधिका, अरे दूल्हा नन्दकुमार ॥
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
नटवारी की जय
बनवारी की जय
एक चंचल एक भोली भाली की जय
वृन्दावन से वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव ।
बन्सीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम ॥
बन्सीवारे की जय
बन्सीवारे की जय
बोलो पीतपटवारे की जय जय जय
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय

राधे मेरी स्वामिनी मैं राधे की दास ।
जनम जनम मोहे दीजियो श्री वृन्दावन वास ॥

सब द्वारन को छाँड़ि के, अरे आयी तेरे द्वार ।
वृषभभानु की लाड़ली, तू मेरी ओर निहार ॥
राधे रानी की जय जय
महारानी की जय
जय हो !

बोलो वृन्दावन की जय । ?
अलबेली सरकार की जय ।
बोलो श्री वृन्दावन बिहारी लाल की जय ॥

Wednesday, 10 April 2013

 
                                                          


l मन्त्रसहितं कालीकवचम् ll

कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम्। नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च साम्प्रतम्॥

नारायण उवाच

श्रृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम्। गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्॥

ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम्। दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि॥

दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धि: कृता पुरा। पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम्॥

बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम स:। कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादत:॥


नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा। अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो॥

नारायण उवाच

श्रृणु वक्ष्यामि विपे्रन्द्र कवचं परमाद्भुतम्।
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा॥

त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च।
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने॥

दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने।
अतिगुह्यतरं तत्त्‍‌वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्॥

ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥

ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु।
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥

ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम्।
ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥

ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु।
क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम॥

क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु।
क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥

ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु।
रक्त बीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥

ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु।
ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥

प्राच्यां पातु महाकाली आगन्ेय्यां रक्त दन्तिका।
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥

श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका।
उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥

ऊध्र्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा।
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू: सदा॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम्॥

सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादत:।
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपति:॥

प्रचेता लोमशश्चैव यत: सिद्धो बभूव ह।
यतो हि योगिनां श्रेष्ठ: सौभरि: पिप्पलायन:॥

यदि स्यात् सिद्धकवच: सर्वसिद्धीश्वरो भवेत्।
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च॥

निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कलीं जगत्प्रसूम्।
शतलक्षप्रप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥